हमारे देश में धार्मिक आस्था और परंपराएं बहुत गहराई से जुड़ी हुई हैं। विशेषकर भगवान शिव की आराधना में सर्प (नाग) का विशेष स्थान है। शिवभक्तों के लिए भगवान शंकर का गले में लिपटा हुआ नाग देवता आस्था, शक्ति और नियंत्रण का प्रतीक माना जाता है। यह सर्प केवल एक आभूषण नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु के रहस्य, योग और तंत्र का गूढ़ संकेत माना जाता है।
परंतु हैरानी की बात यह है कि वही समाज, जो मंदिरों में भगवान शिव के गले में सर्प को देखकर नतमस्तक होता है, वही समाज यदि किसी असली सर्प को रास्ते में या घर में देख ले, तो उसे मारने से भी नहीं चूकता। आखिर ऐसा दोहरापन क्यों?
इसका एक बड़ा कारण डर और अज्ञानता है। अधिकतर लोग सर्प को केवल विषैला और जानलेवा जीव समझते हैं, जबकि वास्तव में भारत में पाई जाने वाली सर्प प्रजातियों में से केवल कुछ ही विषैली होती हैं। फिर भी, बिना कुछ सोचे-समझे लोग सांप को देखते ही उसे मारने की कोशिश करते हैं।
दूसरी ओर, जब वही सांप धार्मिक प्रतीक बन जाता है — जैसे भगवान शिव के गले में — तब वह पूजनीय बन जाता है। इसका कारण हमारी प्रतीकात्मक सोच है। हम वास्तविकता से अधिक प्रतीकों को महत्व देने लगे हैं।
इस सोच में बदलाव की आवश्यकता है। यदि हम सर्प को भगवान शिव का प्रतीक मानते हैं, तो हमें वास्तविक सर्पों को भी जीव मात्र समझकर उनके साथ दया का व्यवहार करना चाहिए। उन्हें मारने के बजाय वन विभाग को सूचना देकर सुरक्षित स्थान पर छोड़ा जा सकता है। धार्मिक प्रतीकों की पूजा तभी सार्थक है, जब हम उनसे जुड़ी मूल भावना — करुणा, संरक्षण और समभाव — को भी अपनाएं।