देवी काली और रक्तबीज की कहानी पर आधारित फिल्म मां
The main purpose of horror movies is to create fear in the audience

देवी काली और रक्तबीज की कहानी पर आधारित फिल्म मां : हॉरर फिल्मों का मुख्य उद्देश्य होता है दर्शकों के भीतर भय पैदा करना। भूत-प्रेत, राक्षस और अंधविश्वास से जुड़ी कहानियाँ आमतौर पर दर्शकों को रहस्यमयी और रोमांचक लगती हैं। हाल ही में रिलीज हुई फिल्म ‘मां’ भी इसी शैली की एक पौराणिक हॉरर फिल्म है, जिसमें देवी काली और राक्षस रक्तबीज की कथा को केंद्र में रखा गया है। हालांकि, यह फिल्म अपने दमदार कॉन्सेप्ट के बावजूद दर्शकों में वो डर और रोमांच पैदा करने में असफल रहती है, जिसकी उम्मीद इस विषयवस्तु से की जाती है।
फिल्म की कहानी पश्चिम बंगाल के चंद्रपुर गांव में शुरू होती है, जहां एक नवजात बच्ची की बलि चढ़ाई जाती है। फिर कहानी 40 साल आगे बढ़ती है, जहां शुभांकर (इंद्रनील सेन गुप्ता) अपनी पत्नी अंबिका (काजोल) और बेटी श्वेता (खेरिन शर्मा) के साथ सुखी जीवन बिता रहा होता है। पिता की मृत्यु के बाद शुभांकर गांव आता है, लेकिन लौटते समय एक शैतानी ताकत उसे मार देती है। इसके तीन महीने बाद गांव का सरपंच जायदेव (रोनित रॉय) अंबिका को हवेली बेचने के लिए बुलाता है।
गांव की हवेली को श्रापित बताया जाता है। मान्यता है कि इसके पीछे खंडहर में एक दैत्य रहता है, जो पहली बार माहवारी आने वाली लड़कियों को उठा ले जाता है। श्वेता और दीपिका (हवेली के नौकर की बेटी) गलती से उस पेड़ के पास चली जाती हैं, जिसके बाद दीपिका गायब हो जाती है। अंबिका उसे ढूंढने निकलती है और कई रहस्यमयी घटनाओं का सामना करती है।
फिल्म की पृष्ठभूमि देवी काली और रक्तबीज की कथा से जोड़ी गई है, जहां रक्तबीज की रक्त की एक बूंद से कई राक्षस उत्पन्न हो जाते हैं। उसी की एक बूंद चंद्रपुर में गिरती है और गांव पर दशकों से आतंक छाया रहता है।फिल्म का मुख्य भार अभिनेत्री काजोल के कंधों पर है, लेकिन उनका प्रदर्शन सीमित और एकरस लगता है। मां-बेटी के रिश्ते में वो भावनात्मक गहराई नहीं आ पाती, जो दर्शक महसूस कर सकें। रोनित रॉय ने अपने हिस्से का काम प्रभावशाली ढंग से किया है, लेकिन कहानी और स्क्रीनप्ले में कसावट की कमी के कारण ‘मां’ डराने के बजाए उलझा देती है।