देहरादून की लीची कभी थी देश की शान, अब बची सिर्फ यादों में
Now the city in whose streets the fragrance of litchi once used to float

देहरादून की लीची कभी थी देश की शान, अब बची सिर्फ यादों में : एक दौर था जब देहरादून को न सिर्फ अपने सुखद मौसम के लिए, बल्कि यहां की बासमती चावल और रसीली लीची के लिए भी देशभर में पहचाना जाता था। लेकिन वक्त के साथ-साथ दून की आबोहवा और पहचान दोनों ही बदल गए। अब जिस शहर की गलियों में कभी लीची की खुशबू तैरती थी, वहां अब कंक्रीट के जंगलों की गर्माहट महसूस होती है।
आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1970 में देहरादून में करीब 6500 हेक्टेयर भूमि पर लीची के बाग मौजूद थे। आज यह क्षेत्रफल तेजी से सिमट गया है। लीची के बागों की जगह अब बहुमंजिला इमारतें और हाउसिंग प्रोजेक्ट्स ने ले ली है। भूमि की बढ़ती कीमतों और अनियंत्रित शहरीकरण ने देहरादून की मीठी पहचान को गहरा नुकसान पहुंचाया है।
देहरादून में न सिर्फ उत्पादन घटा है, बल्कि लीची के स्वाद, रंग और आकार में भी काफी बदलाव आया है। पहले की तुलना में अब लीची छोटी, कम मिठास वाली और फीकी रंगत की हो गई है। विकासनगर, बसंत विहार, नारायणपुर, रायपुर, कौलागढ़ और डालनवाला जैसे इलाकों में कभी सैकड़ों बाग हुआ करते थे, लेकिन अब ये नाम सिर्फ पुराने किस्सों में रह गए हैं।
स्थानीय लोग बताते हैं कि पहले गर्मियों में देहरादून की गलियों में लीचियों की खुशबू फैल जाया करती थी। लोग बगीचों में जाकर पहले से बुकिंग कर लिया करते थे। आज स्थिति यह है कि न तो वह खुशबू रही, न ही वह रौनक।
लीची के हालात इतने खराब हो चुके हैं कि उसकी बाजार में उपलब्धता कम होती जा रही है, जबकि मांग गर्मियों में लगातार बढ़ रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह है अंधाधुंध निर्माण, सरकारी उदासीनता और प्लानिंग की कमी।
वन और उद्यान विभाग की लापरवाही से पुराने पेड़ कटते गए और नए प्लांटेशन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। परिणामस्वरूप, देहरादून की वह मीठी विरासत अब लगभग समाप्ति की ओर है।
यदि आज भी हरित विकास और फल संरक्षण को प्राथमिकता नहीं दी गई, तो देहरादून की लीची आने वाली पीढ़ियों के लिए सिर्फ किताबों की कहानियों में ही रह जाएगी।